Friday 14 April 2017

किसानों को कैसे मिले ई-नाम का इनाम


आज से ठीक एक साल पहले 14 अप्रैल को केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने ईलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाजार यानी ई-नाम की शुरुआत की थी। ई-नाम का उद्देश्य पूरे देश को एक मंडी के तौर पर स्थापित करना है, जिसमें देश के किसी भी एक हिस्से में बैठा कोई कारोबारी देश के किसी भी दूसरे हिस्से की मंडी में ले जाई जाने वाली किसान की उपज पर बोली लगा सकता है, उसे खरीद सकता है।

मोदी सरकार की इस पहल को आजादी के बाद से कृषि क्षेत्र में शुरू की गई सबसे बड़ी क्रांति माना जा सकता है क्योंकि इसकी सफलता से किसानों की आय बढ़ाने की राह में सबसे बड़ी मुश्किल का समाधान हो जाएगा। आइए पहले समझते हैं कि ई-नाम है क्या और यह कैसे काम करेगा और इसकी सफलता से क्या लक्ष्य हासिल हो सकेंगे? दरअसल मौजूदा व्यवस्था के तहत किसान अपने पास की (जिसकी दूरी 70-80 किलोमीटर तक भी हो सकती है) किसी भी मंडी में अपनी फसल लेकर जाता है और वहां अपने कमीशन एजेंट या आढ़तिये के पास अपनी उपज जमा कर देता है। इसके बाद आढ़तिया उसे नीलामी में उतारता है। मंडी के 4-5 कारोबार घेरा बनाकर खड़े होते हैं और हाथों में कमोडिटी को उठाकर एक अंदाजे से बोली लगाते हैं। फिर दो-तीन दूसरे कारोबारी उस पर क्रॉस बिड करते हैं और एक भाव तय कर सब कारोबारी दूसरे किसान की कमोडिटी की तरफ बढ़ जाते हैं। 

किसान के पास अधिकार होता है कि वह चाहे तो बोली की कीमत पर अपना अनाज न बेचे। लेकिन यह केवल सैद्धांतिक अधिकार है। व्यावहारिक तौर पर एक किसान के लिए वापस ट्रांसपोर्ट का खर्च देकर उपज घर ले जाना और अगले दिन फिर मंडी आना संभव नहीं होता क्योंकि अगले दिन भी बोली लगाने वाले वही कारोबार होते हैं और उपज की लागत इतनी बढ़ जाती है कि किसान को भारी नुकसान होना तय हो जाता है।

इन्हीं कारणों से मंडियों में एक कहावत चलती है कि यहां आने वाली उपज श्मशान जाने वाले मुर्दे की तरह है। एक बार जाने के बाद मुर्दा घर नहीं लौटता, उसे जलाना या दफनाना ही होता है। लेकिन केंद्र सरकार ने जिस ई-नाम पर एक साल पहले काम शुरू किया, उसमें 3 चरणों में काम होना है। पहले चरण मंडी पर ऑक्शन की पद्धति को पूरी तरह ऑनलाइन किया जा रहा है। यानी किसान जब मंडी में अपना माल लेकर आएगा, उसी समय उसे एक लॉट नंबर देकर उसके माल की एंट्री कर ली जाती है। इसमें लॉट नंबर के साथ उसकी मात्रा भी शामिल होती है और यह पूरी सूचना कम्प्यूटर स्क्रीन पर आ जाती है। 

दोपहर में एक नियत समय पर जब ऑक्शन शुरू होता है, तब सभी ट्रेडर सारे लॉट और उसकी मात्रा एक साथ स्क्रीन पर देखते हैं और उसी पर ऑक्शन होता है। वहां आप भाव तो देख सकते हैं, लेकिन कौन वो बोलियां लगा रहा है, इसकी जानकारी आपको नहीं मिलती। तो यह तो हुआ पहला चरण।
दूसरे चरण में एक राज्य की सभी मंडियों को एक दूसरे से जोड़ा जाएगा और राज्य के किसी भी शहर में बैठा कारोबारी दूसरे किसी भी शहर की मंडी में पहुंचे किसान के माल की बोली लगा सकेगा। और तीसरा और अंतिम चरण होगा, जब किसी भी राज्य का कारोबारी किसी भी दूसरे राज्य की किसी भी मंडी में किसी किसान का माल, उसकी मात्रा और भाव देख सकेगा और उस पर बोली लगा सकेगा।

सरकार ने पहले चरण में मार्च 2018 तक 585 मंडियों को ई-नाम के तहत लाने का फैसला किया है। 31 मार्च 2017 तक सरकार ने 400 मंडियों को इसके तहत लाने का लक्ष्य रखा था, जबकि 10 अप्रैल तक 417 मंडियां इसमें शामिल हो गई हैं। इन मंडियों में 39.5 लाख किसानों ने अपना रजिस्ट्रेशन कराया है और इसके जरिए अब तक 15,000 करोड़ रुपये के 59 लाख टन कमोडिटी का कारोबार हो चुका है।

यानी सरकार पहले चरण के तहत पूरी तरह ट्रैक पर है। लेकिन दूसरे और तीसरे चरण की राह आसान नहीं है। इसमें सबसे बड़ी चुनौती मंडी में आने वाले माल का गुणवत्ता मानक तय करने की है। दरअसल हर कमोडिटी की कीमत निर्धारण में उसकी गुणवत्ता का सबसे बड़ा योगदान होता है। और इन मानकों में नमी, खर-पतवार, टूटे दाने इत्यादि की प्रतिशतता देखी जाती है। अब एक ही मंडी में तो कारोबारी माल हाथ में उठाकर देख लेता है और भाव लगा देता है, लेकिन दूर की मंडी के माल का भाव वह तब तक नहीं लगा सकता, अगर स्क्रीन पर माल के साथ उसके गुणवत्ता मानकों का विवरण न देख ले। और यह तब तक संभव नहीं है, जब तक इन सभी 585 मंडियों में आने वाले हर किसान के सारे माल की असेईंग, ग्रेडिंग और क्लिनिंग न की जा सके। यह आसान काम नहीं है। 

इसी उद्देश्य से वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2017-18 के लिए पेश आम बजट में ई-नाम के तहत शामिल होने वाली हर मंडी के लिए मदद की रकम 30 लाख रुपये से बढ़ाकर 75 लाख रुपये कर दी है। इनमें 30 लाख रुपये असेईंग के लिए जरूरी कम्प्यूटर हार्डवेयर के लिए 40 लाख रुपये क्लीनिंग, ग्रेडिंग सुविधाएं विकसित करने के लिए और 5 लाख रुपये मंडी के वेस्ट से कम्पोस्ट खाद बनाने के लिए खर्च किए जाएंगे। सभी मंडियों में यह सुविधा आने के बाद ही दूसरे और तीसरे चरण का काम पूरा होगा।

एक बार यह हो जाने के बाद, किसानों को बाजार सुनिश्चित करने और उन्हें अपने उपज का अच्छा भाव दिलाने के लिहाज से यह एक क्रांतिकारी घटना होगी। इससे एक तरफ तो छोटी से छोटी जगह के किसानों को भी पूरे देश के कारोबारियों की प्रतिस्पर्द्धी बोलियों का फायदा मिल सकेगा और दूसरी ओर पूरे देश में मांग और आपूर्ति की तस्वीर रियल टाइम बेसिस पर शीशे की तरह साफ रहेगी। इससे जहां एक ओर कालाबाजारी और जमाखोरी खत्म होगी, वहीं अनाज की कृत्रिम कमी भी तैयार नहीं की जा सकेगी।

राज्य सरकारों के लिए ई-नाम में शामिल होने से पहले अपने एपीएमसी एक्ट में संशोधन करना अनिवार्य शर्त है। फिलहाल सरकार ने 69 कमोडिटी को ई-नाम प्लेटफॉर्म पर शामिल किया है और 13 राज्यों ने एपीएमसी एक्ट में जरूरी संशोधन कर लिया है। 12 अप्रैल को केंद्र और राज्यों के कृषि अधिकारियों के बीच हुई बैठक में पश्चिम बंगाल और तामिलनाडु ने भी इस प्रक्रिया में जल्द से जल्द शामिल होने की इच्छा जताई है। यानी कुल मिलाकर केंद्र सरकार अपने लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ रही है और इसमें उसे मिलने वाली सफलता देश के किसानों, ग्रामीण अर्थव्यवस्था और उपभोक्ताओं के लिए एक शानदार खबर होगी।

Tuesday 4 April 2017

कर्ज माफी से 2019 में बढ़ेगी यूपी में बीजेपी की चुनौतियां


उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनावी वादे को पूरा करते हुए राज्य के सभी लघु और सीमांत किसानों का 1 लाख रुपये तक का कर्ज माफ कर दिया है। इसके अलावा सरकार ने 7 लाख अन्य किसानों के एनपीए हो चुके यानी डूब चुके 5630 करोड़ रुपये का कर्ज भी पूरी तरह माफ करने का फैसला किया है। लघु और सीमांत किसानों के लिए की गई कर्ज माफी पर सरकार 30,000 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करेगी, जिससे इस पूरी परियोजना पर सरकार का खर्च 36,000 करोड़ रुपये से कुछ ज्यादा होगा।

यह योगी सरकार का एक ऐसा फैसला था जो पहले से लगभग तय था और सबको इसका इंतजार था। लेकिन यह आसान सा फैसला लेने में योगी सरकार को शपथ लेने के बाद पूरे 15 दिन लग गए। और इस आसान से फैसले की मुश्किल कुछ ऐसी थी कि 324 विधायकों के साथ सरकार बनाने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को अपनी पहली कैबिनेट बैठक तक के लिए 15 दिनों का इंतजार करना पड़ा क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी वादे में पहली कैबिनेट बैठक में ही यह फैसला लेने का वचन दिया था। और विपक्ष ताक में बैठा था कि यदि पहली बैठक में यह फैसला न हो, तो राज्य ही नहीं, पूरे देश में बीजेपी की चमकदार यूपी विजय को धूमिल किया जा सके।
विपक्ष को मौका देना नहीं था और इसलिए घोषणा तो कैबिनेट की पहली बैठक में ही होनी थी। 

फिर इस आसान फैसले की मुश्किल क्या थी? मुश्किल यह थी कि एक राज्य के चुनाव में ये देश के प्रधानमंत्री का किया वादा था। तो जैसे ही यूपी में बीजेपी की सरकार बनी, महाराष्ट्र में विपक्ष की भूमिका निभा रहे सत्ता में सहयोगी शिवसेना के विधायकों ने हंगामा खड़ा कर दिया। यदि यूपी के चुनावों को मोदी कर्ज माफी का तोहफा दे सकते हैं, तो महाराष्ट्र के  किसानों को क्यों नहीं? और यदि केंद्र महाराष्ट्र की मांग मान ले तो फिर बाकी 27 राज्य भला क्योंकर चुप बैठने वाले थे। तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तुरंत बयान दिया कि कर्ज माफी राज्यों का विषय है और केंद्र की इसमें कोई भूमिका नहीं है।

साफ है कि अब इस चुनावी वादे को निभाने की पूरी जिम्मेदारी केवल योगी की थी और इस जिम्मेदारी की अर्थव्यवस्था इस आसान से फैसले को कठिन बना रही थी। इसलिए कि योगी सरकार पर 2019 से पहले राज्य के बुनियादी ढांचे से लेकर रोजगार तक के क्षेत्र में कुछ बड़ा कर दिखाने का भारी दबाव है और बिना फंड के यह हो नहीं सकता। तो किसानों की कर्ज माफी के साथ ही सरकारी खजाने को पंगु न होने देना राज्य सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

वादे और चुनौती के बीच रास्ता निकालते हुए ही राज्य सरकार ने 2008 में यूपीए सरकार की ओर से की गई कर्ज माफी की तर्ज पर सभी किसानों को इसका फायदा पहुंचाने के बजाय केवल लघु और सीमांत किसानों के 1 लाख रुपये तक का कर्ज माफ करने का फैसला किया है। अलबत्ता 16 फरवरी को हरदोई की चुनावी सभा में प्रधानमंत्री मोदी ने जो वादा किया था, उसमें सभी किसानों के कर्ज माफी की बात थी, किसी खास वर्ग के किसानों की नहीं। 

ऐसे में संतुलन बनाने के लिए ऐसे किसानों के 5,630 करोड़ रुपये का कर्ज भी माफ करने का फैसला किया गया, जिन्होंने पहले ही उसकी किस्तें देना बंद कर दिया है और बैंकों की बैलेंस शीट में यह डूबे कर्ज की श्रेणी में जा चुका है
यूपी में 2011 की जनगणना के मुताबिक कुल लगभग 6.58 करोड़ कामकाजी लोग हैं, जिनमें से 59 प्रतिशत यानी लगभग 3.88 करोड़ लोग खेती पर आश्रित हैं। इनमें से लगभग 2.33 करोड़ लोग किसान हैं, जिनके पास अपनी जमीन है। छोटे और सीमांत किसानों की संख्या इनमें 92 प्रतिशत यानी लगभग 2.15 करोड़ है, जिनके पास कुल खेतिहर जमीन के लिहाज से 45 प्रतिशत है। छोटे किसानों के पास औसत 1.4 हेक्टेयर और सीमांत किसानों के पास औसत 0.4 हेक्टेयर जमीन है।

उत्तर प्रदेश में किसानों का कर्ज पिछले 4 सालों में दोगुने से भी ज्यादा हो गया है। जहां 2012-13 में यह 31900 करोड़ रुपये था, वहीं 2014-15 में यह बढ़कर 55600 करोड़ रुपये हो गया। पूरे देश में 2015-16 और 2016-17 के दौरान कृषि कर्ज में हुई 15.3 प्रतिशत और 8 प्रतिशत की बढ़ोतरी के हिसाब से माना जा सकता है 31 मार्च 2017 को खत्म हुए साल में यह कर्ज बढ़कर 69200 अरब रुपये तक पहुंच गया है। यह पूरा कर्ज माफ करने से राज्य सरकार पर पड़ने वाला बोझ संभालना मुश्किल हो सकता था। इसलिए सरकार ने बीच का रास्ता निकाला।
लेकिन यह बीच का रास्ता भी कई चुनौतियां लेकर आएगा। 

साल 2016-17 का उत्तर प्रदेश का बजट 3.46 लाख करोड़ रुपये का था। यानी वर्तमान फैसले से राज्य सरकार पर पूरे साल के बजट का 10 प्रतिशत से ज्यादा बोझ पड़ेगा। मिशन 2019 के लिहाज से यह रकम राज्य सरकार की तमाम भावी योजनाओं को पटरी से उतार सकती है क्योंकि सरकार ने एक तरफ तो इस साल जून तक हर सड़क को गड्ढा मुक्त करने जैसे लक्ष्य की घोषणा की है, वहीं 25 सितंबर 2018 तक हर गांव को बिजली देने का लक्ष्य भी रखा है। रोजगार एक अन्य मोर्चा है, जहां सरकार को बड़े परिणाम दिखाने होंगे और इसके लिए बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे में निवेश की भी जरूरत होगी।

यानी साफ है कि उत्तर प्रदेश के छोटे और सीमांत किसानों की कर्ज माफी के कैबिनेट के फैसले से भले ही बीजेपी ने अपना एक बड़ा चुनावी वादा पूरा कर दिया हो, लेकिन इसके साथ ही पार्टी ने दूसरे कई चुनावी वादों को अमली जामा पहनाने की अपनी चुनौती बढ़ा भी ली है।

Monday 27 March 2017

भाजपा की हर जीत पर बढ़ता संघ की विश्वसनीयता का संकट


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बरसाना तहसील के तहसील प्रचारक मनीष कुमार उत्तर प्रदेश की बोर्ड परीक्षा में हो रहे नकल को रोकने लिए उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा के अभियान चलाने संबंधी बयान से उत्साहित होकर अपने इलाके के रामादेवी इंटर कॉलेज पहुंच गए। कैमरा लिया और लगे दो होमगार्ड जवानों का वीडियो बनाने, जो इंटर में फिजिक्स की परीक्षा के दौरान नकल करा रहे थे। फिर क्या था, होमगार्ड जवानों ने आव देखा न ताव, मनीष कुमार पर पिल पड़े। डंडों से पिटे मनीष कुमार बाद में संगठन के कार्यकर्ताओं के साथ थाने पहुंचे, तो होमगार्ड शेरपाल और धनेश के खिलाफ कार्रवाई का भरोसा दिया गया। उन्हें जेल भेजने के आश्वासन के साथ निलंबित कर दिया गया।
लेकिन क्लाईमैक्स अभी बाकी था और वह तब आया जब स्वयं भाजपा के कुछ नेता संघ के कार्यकर्ताओं पर मामले को ज्यादा तूल न दिए जाने का दबाव बनाने लगे। कारण

दरअसल यह स्कूल एक भाजपा नेता का है और वह भाजपा नेता किसी मंत्री का करीबी बताया जा रहा है। भाजपा की तरफ से यही संघ के लिए संदेश है। संघ का प्रचारक चुनाव में संगठन को मोबिलाइज करे, कार्यकर्ताओं को अपने घर से अपना खाना खाकर, अपना तेल जलाकर, अपना काम नुकसान कर संगठन के हित में भाजपा के उम्मीदवार को जिताए और चुनाव खत्म होने के बाद चुपचाप शाखा लगाए। भाजपा के नेता सत्ता में आकर अपने स्कूलों में नकल कराएं, अपने पेट्रोल पंपों पर मिलावट करवाएं, अपने अस्पतालों में लोगों की जेबें काटें और मंगल मनाएं।

संघ के लिए यह खतरे की घंटी है। संघ हमेशा से दावा करता है कि राजनीति से उसका कोई मतलब नहीं और वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन है। लेकिन सच सबको पता है। भाजपा का गर्भनाल संघ से जुड़ा है और अपने संगठन सचिवों और महासचिवों के जरिए संघ पार्टी के कार्यकलापों और नीतियों पर नियंत्रण भी रखने की कोशिश करता है। पिछले दशक तक संघ के प्रचारक, जिन्हें संगठन की कमान दी जाती थी, सत्ता में भागीदार नहीं बनते थे और सरकार में कोई पद नहीं लेते थे। लेकिन नरेंद्र मोदी से शुरू होकर अब इस परंपरा में कई नाम शामिल हो चुके हैं।
इससे बाहर से देखने पर ऐसा लगता है कि भाजपा पर संघ का नियंत्रण बढ़ता जा रहा है। उत्तराखंड में 19 साल तक प्रचारक रहे त्रिवेंद्र सिंह रावत और उत्तर प्रदेश में मनोज सिन्हा का नाम लगभग फाइनल होने के बावजूद योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी ने इस अहसास को और गहरा किया है। लेकिन थोड़ा भीतर जाकर देखा जाए तो चीजें अलग दिखने लगती हैं। पिछले दो दशकों में जिस तरह भाजपा का सांगठनिक और पिछले एक दशक में जिस तरह इसकी सत्ता का विस्तार हुआ है, उसके लिहाज से संघ के लिए पार्टी पर नियंत्रण रखना एक बड़ी चुनौती है। यह चुनौती समय के साथ बड़ी होती जा रही है।

पहले भाजपा के तमाम बड़े नेता संघ की पृष्ठभूमि से थे और इसलिए उनमें से लगभग हर एक की लगाम संघ के किसी न किसी बड़े अधिकारी के हाथ में होती थी। यह लगाम किसी ताकत या मोलभाव की नहीं, बल्कि नैतिक होती थी। क्योंकि भाजपा के इन बड़े नेताओं की सांगठनिक और वैचारिक परवरिश किसी न किसी प्रचारक की छत्रछाया में हुई होती थी, तो ये नेता उन प्रचारकों के सामने कुछ भी गलत करने या गलती जाहिर होने से डरते थे। लेकिन 2017 की भाजपा अलग है। 

संगठन और सरकार में ऐसे नेताओं की एक पूरी फौज है, जो चुनाव से महज कुछ दिनों, हफ्तों या महीनों पहले पार्टी में शामिल हुए और पार्टी या सरकार के महत्वपूर्ण पदों पर पहुंच गए। ये वे नेता हैं, जिन्होंने पूरी जिंदगी संघ को, उसकी विचारधारा को और उसके प्रचारकों को गालियां दी हैं। इनके मन में न संगठन के प्रति और न ही संघ के अधिकारियों के प्रति कोई सम्मान है। है तो बस डर। डर संघ की सांगठनिक ताकत का। यह बात संघ को भी समझ में आ गई है कि भाजपा पर निंयंत्रण बनाए रखने का एकमात्र तरीका पार्टी नेताओं को जीत में अपनी अपरिहार्यता साबित करते रहना है और इसीलिए हर चुनाव में संघ की भागीदारी और गहन होती हुई दिखती है।

लेकिन संघ की इस रणनीति के अपने खतरे भी हैं। जब भाजपा नेता के स्कूल में परीक्षा में चोरी रोकने के चक्कर में संघ का तहसील प्रचारक पिटता है और जब भाजपा के नेता संघ के कार्यकर्ताओं पर मामले को दबाने का दबाव बनाते हैं तो ये खतरा अपने पूरे जोरों पर मुखर हो जाता है। खबर यह भी है कि दिल्ली के एमसीडी चुनावों में संघ के कार्यकर्ता घर-घर जाकर यूपी की तर्ज पर प्रचार करने वाले हैं। इसमें किसी को संदेह नहीं कि दिल्ली के तीनों एमसीडी में भाजपा शासन का भ्रष्टतम चेहरा सामने आया है। 

संघ इसका मूक दर्शक बना रहा और अब फिर से भाजपा की जीत पक्की करने के लिए मैदान में उतरने की तैयारी में है। अगर यह सच है तो संघ को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके समर्थन और पसीने से बनी सरकार उसकी नीतियों, उसके मूल्यों और दर्शन पर चले। नहीं तो भाजपा तो सत्ता में आकर अपना लक्ष्य हासिल कर लेगी, लेकिन भारत को एक गौरवमयी और आदर्श समाज देने का संघ का उद्देश्य ध्वस्त हो जाएगा।

Saturday 25 March 2017

योगी के डंडे भर से नहीं सुधरेगी यूपी की तकदीर


एक ट्रेन में जाती किसी अकेली लड़की से बलात्कार किया जाता है और उसे एसिड पिला दिया जाता है। इस जघन्य कुकृत्य को करने वाले न तो कोई बहुत बड़े राजनीतिक रसूख वाले लोग हैं और न बहुत पैसे वाले। संपत्ति का विवाद था और उसमें बदला लेने के लिए हैवानियत की हद तक जाने वाला यह रास्ता चुना गया। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पीड़ित लड़की से मिलने अस्पताल गए, लड़की को मुफ्त इलाज के निर्देश दिए, 1 लाख रुपये की मदद दी और पुलिस को ताकीद की कि दोषियों को जल्द से जल्द पकड़ा जाए। और चंद घंटों के भीतर इस घटना के लिए जिम्मेदार दोनों अपराधी पकड़ लिए गए।

योगी की सक्रियता काबिलेतारीफ है और उसकी तारीफ होनी भी चाहिए। लेकिन पूरी राष्ट्रीय मीडिया में इस घटना के विमर्श की जो दिशा है, वह वास्तव में शोचनीय है। चारों तरफ योगी-योगी का शोर मचा है। निश्चित तौर पर शपथ ग्रहण के बाद से योगी की सक्रियता और पूरे प्रशासन में मचा हड़कंप खबरों और इलेक्ट्रॉनिक विजुअल्स के लिहाज से आदर्श मसाला है। लेकिन इस पूरे घटनाक्रम का एक दूसरा पहलू भी है और जिसे विमर्श के केंद्र में आना चाहिए।

20 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या वाले उत्तर प्रदेश में रोज किसी न किसी तरह के अत्याचार का शिकार होने वाली आम महिलाओं की संख्या सैकड़ों में है। तो क्या उन सबको न्याय पाने के लिए योगी के निजी दौरे का इंतजार करना होगा? यह पहला बड़ा सवाल है। और दूसरा बड़ा सवाल है कि लगभग 3 दर्जन मंत्रालयों के स्वामी योगी आदित्यनाथ क्या हजारों पुलिस स्टेशनों, हजारों सरकारी अस्पतालों और लाखों सरकारी कार्यालयों में निजी दौरे कर मुख्यमंत्री के तौर पर अपने वृहत्तर दायित्वों का सही निर्वाह कर पाएंगे? और तीसरा और सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या योगी के बाद फिर अखिलेश या मायावती की सरकार आने पर गरीब और मजलूम लड़कियां बलत्कृत होकर एसिड पीने का पैशाचिक कृत्य झेलती रहेंगी।

दरअसल ताजा हालत पर मीडिया और समाज का विमर्श हीरोइज्म के प्रति हम भारतीयों की वाव फीलिंग का स्वाभाविक नतीजा है। हमारे अचेतन में यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत का संदेश इतना गहरे पैठ चुका है कि हम मान लेते हैं कि इस देश की प्रशासनिक व्यवस्था, यहां के न्यायिक और पुलिसिया तंत्र का कुछ हो तो सकता नहीं है, अलबत्ता कोई मोदी या कोई योगी आकर यदि कहीं, कोई फर्क पैदा कर रहा है, तो यही बहुत है। लेकिन यदि हम लोक-विमर्श की दिशा थोड़ी बदल सकें तो मोदी-योगी का यही युग व्यवस्था परिवर्तन का सर्वोत्तम अवसर है।

नए मुख्यमंत्रियों या मंत्रियों द्वारा अस्पतालों और पुलिस स्टेशनों में औचक निरीक्षण की परंपरा पुरानी है। बल्कि मुझे तो याद आता है कि करीब 25 साल पहले जब लालू यादव पहली बार सरकार में आए थे, तो यह उनके गवर्नेंस स्टाइल का अभिन्न हिस्सा था। औचक निरीक्षणों में पुलिस वालों, डॉक्टरों और शिक्षकों को निलंबित करना और फिर मीडिया में बयान देकर उन्होंने खूब वाहवही बटोरी थी। लेकिन उसके बाद 15 सालों के उनके शासन में जो हुआ, इतिहास उसका गवाह है। दरअसल एक तरह से देखा जाए तो औचक दौरे और सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों का निलंबन एक शॉर्ट कट है, जिसमें आपको बिना कुछ किए अधिकतम मीडिया अटेंशन और लोगों की वाहवही मिल जाती है। लेकिन यह गवर्नेंस का स्टैंडर्ड तरीका नहीं हो सकता।

इसका मतलब यह भी नहीं कि योगी पिछले हफ्ते भर से जो कर रहे हैं, उसका महत्व नहीं है। अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी सरकार ने प्रशासनिक अधिकार और आत्मसम्मान को जिस निचले स्तर तक पहुंचा दिया थे, उसे उठाने, उसमें आत्मविश्वास जगाने और झकझोरने के लिए पहले उसकी अथॉरिटी बहाल करना जरूरी था। लेकिन इसी बहाने योगी को प्रशासन के मनोविज्ञान के हकीकत का पोस्टमॉर्टम भी करने की जरूरत है। 

जिस गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ 25 सालों से रह रहे हैं, वहां मुख्यमंत्री बनने के बाद पहली बार जाने की खबर भर से सड़कों के गड्ढ़े भरे जाने लगते हैं, वर्षों से बजबजा रहे नाले साफ होने लगते हैं, थानों और अस्पतालों की सफाई होने लगती है। क्या सचमुच इन कामों के लिए हर शहर से किसी को मुख्यमंत्री बनने की जरूरत है? क्या अब तक गोरखपुर की जनता को एक अच्छी सड़क, एक जवाबदेह नगर निगम और एक साफ-सुथरे अस्पताल का अधिकार नहीं था? और क्या कानपुर, बरेली, गाजीपुर, आगरा, मेरठ, चित्रकूट, झांसी, भदोही, बिजनौर, गोंडा और ऐसे सैकड़ों दूसरे शहरों के लोगों को कभी ये अधिकार नहीं मिल सकेगा क्योंकि उनके शहर का कोई व्यक्ति शायद कभी मुख्यमंत्री नहीं बन सकेगा?

यही असली सवाल है, जो मीडिया और लोकचर्चा में आना चाहिए। यही असली समाधान है, जो मोदी और योगी जैसे नेताओं को ढूंढना चाहिए। नहीं तो योगी का धमाल केवल चार दिन की चांदनी बन कर रह जाएगा और फिर अंधेरी रात के ढलने का बस इंतजार ही करना होगा।

Thursday 23 March 2017

ममता लेफ्ट के मैदान में, दूसरे छोर पर बीजेपी का कब्जा


सुप्रीम कोर्ट के नारदा घोटाले की जांच सीबीआई को नहीं दिए जाने की मांग को ठुकराए जाने के बाद अब तय है कि पश्चिम बंगाल में टीएमसी और बीजेपी की राजनीतिक लड़ाई और जोर पकड़ने वाली है। दरअसल 17,000 करोड़ रुपये के रोज वैली घोटाले की जांच सीबीआई पहले से कर रही है और पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ पार्टी टीएमसी के दो सांसद तापस पाल और सुदीप बंद्योपाध्याय पहले से ही जेल में हैं। दूसरी तरफ बीजेपी के करीब दर्जन भर राष्ट्रीय और राज्य स्तर के नेताओं पर पश्चिम बंगाल पुलिस ने आपराधिक मामले दर्ज किए हैं। कुछ को गिरफ्तार भी किया गया है, कुछ और गिरफ्तार हो सकते हैं। इनमें केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो भी शामिल हैं, जिन पर टीएमसी की एक महिला कार्यकर्ता ने किसी टीवी शो के दौरान अश्लील हरकतें करने का आरोप लगाया है। रूपा गांगुली के ऊपर बच्चों की तस्करी का आरोप लगाया है और जांच चल रही है। इनके अलावा जिला और ब्लॉक स्तर पर भी करीब 150 ऐसे बीजेपी नेता हैं,  जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं।

कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल की राजनीति में इतिहास अपने आप को दुहरा रहा है। बस किरदार बदल गए हैं। लगभग एक दशक पहले तक राज्य की राजनीति में संघर्ष का प्रतीक मानी जाने वाली ममता बनर्जी अब सत्ता में हैं और लगभग ढाई दशकों तक सत्ता में रहने के बाद सीपीएम और दूसरी वामपंथी पार्टियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं। दरअसल ममता ही राज्य में अब लेफ्ट की नई प्रतिनिधि हैं, इसलिए लेफ्ट को अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए भी खासी मशक्कत करनी पड़ रही है। ममता के सत्ता में जाने और लेफ्ट का पूरा सपोर्ट बेस ममता की ओर खिसकने के कारण विपक्ष का जो राजनीतिक स्थान खाली हुआ है, उसे पिछले कुछ सालों में बीजेपी तेजी से भर रही है।

वाम राजनीति के चरम पर पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल भी चरम पर था। नंदीग्राम और सिंगूर में हुए पुलिसिया अत्याचार अब भी रोएं खड़े करते हैं। विरोध के किसी भी स्वर को राज्य शक्ति से कुचलना वाम सरकार की रीति-नीति का हिस्सा था। इसी रीति-नीति ने ममता बनर्जी को एक ऐसी जुझारू नेता की छवि दी, गरीबों और मजबूरों की लड़ाई लड़ रही थी। विडंबना है कि सत्ता में आने के बाद ममता बनर्जी ने लगभग उन्हीं तरीकों को अपनाना शुरू किया है, जिन्हें उन्हें बंगाल की दीदी बनाया। नारदा चिट फंड घोटाले के संदर्भ में कोलकाता हाई कोर्ट की राज्य पुलिस पर की गई टिप्पणी इसका प्रमाण है। पार्टी लक्ष्यों के लिए पुलिसिया तंत्र के इस्तेमाल के अलावा कथित मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति भी एक ऐसा तत्व है, जिसे ममता बनर्जी ने सीधे वाम मोर्चे की सरकार से विरासत में हासिल कर लिया।

इनमें एक प्रमुख नीति बंगलादेशी घुसपैठियों को बढ़ावा देना और उन्हें राजनीतिक तौर पर हर सहूलियत मुहैया कराना था ताकि मुस्लिम वोट बैंक पर एकमुश्त कब्जा किया जा सके। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम वोट बैंक 30 प्रतिशत से ज्यादा है। राज्य की 294 सीटों में से 100 से ज्यादा ऐसी हैं, जिन पर फैसला मुस्लिम वोट ही तय करता है। लेकिन पहले 25 साल की वाम राजनीति और अब ममता की नीतियों का नतीजा अब सामाजिक तौर पर दिखने लगा है, जहां कई गांवों में दुर्गा पूजा के जुलूस निकलने बंद कर दिए गए हैं। कई गांवों और मुहल्लों में शंख ध्वनि नहीं की जा सकती। और जनवरी 2016 में मालदा में हुई घटना, जिसमें 90 प्रतिशत मुस्लिम जनसंख्या वाले कालियाचक में इस्लामिक कट्टरपंथियों ने स्थानीय हिंदुओं पर हमला किया, के बाद जाहिर हुए तथ्यों से स्थिति का भयानकता अब जगजाहिर होने लगी है।

ममता के लेफ्ट की जगह लेने से खाली हुआ विपक्ष का स्थान, उनकी मुस्लिम नीतिओं के कारण हिंदुओं में बढ़ते असंतोष और मोदी के करिश्माई नेतृत्व के कारण हाल के वर्षों में बीजेपी तेजी से एक राजनीतिक ताकत बन कर उभरी है। 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी को पहली बार 17 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 42 में से 2 सीटों पर जीत हासिल हुई। विधानसभा के लिहाज से देखें तो 2011 में पार्टी को मिले 4 प्रतिशत वोट बढ़कर 2016 में 10 प्रतिशत हो गए। 2016 में ही पं. बंगाल की दो लोकसभा सीटों, कूचबिहार और तामलुक में मध्यावधि चुनाव हुए, जिसमें बीजेपी का वोट शेयर क्रमशः 16 से बढ़कर 29 प्रतिशत और 7 से बढ़कर 16 प्रतिशत कर पहुंच गया।

ममता को पता है कि उन्हें अगली चुनौती बीजेपी से ही मिलने जा रही है। इसलिए चाहे विमुद्रीकरण के खिलाफ मोदी के खिलाफ बिगुल फूंकना हो चाहे, 2019 में महागठबंधन बनाने में अगुवाई लेने का। ममता हर जगह आगे दिख रही हैं। लेकिन सवाल तो यह है कि जब भारतीय राजनीति के मूल कथानक बदल रहे हैं, मतदान के पैमाने और मतदाता ध्रुवीकरण के मानक बदल रहे हैं, तब अपनी मूलभूत राजनीतिक रणनीति में बदलाव किए बिना क्या ममता मोदी का तूफान रोक सकेंगी। अगले साल राज्य में होने वाले पंचायत चुनावों में इस सवाल का जवाब बहुत हद तक मिल जाएगा।

Tuesday 21 March 2017

संघ के लिए मोदी मॉडल से अहम है, योगी मॉडल की सफलता

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के पीछे समीकरण चाहे जो रहे हों, सच यही है कि योगी राज्य के नए मुख्यमंत्री हैं। योगी के राज्यारोहण के बाद बरखा दत्त ने ट्वीट किया कि फ्रिंज अब मेनस्ट्रीम बन गया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी लगभग इन्हीं शब्दों में एक खबर की हेडलाइन लगाई कि जानिए कैसे फ्रिंज मेनस्ट्रीम बन गया। यानी 5 बार का सांसद और उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल का सबसे मजबूत और प्रभावी नेता फ्रिंज (अलग-थलग) है। क्यों

क्योंकि वह भगवा पहनता है और हिंदुत्व की बात करता है। दरअसल लेफ्ट और लिबरल बुद्धिजीवियों ने दशकों से अपने तंत्र का इस्तेमाल कर भारतीय जनमानस में यह बात बैठा दी है कि हिंदुत्व और विकास एक-दूसरे के विरोधी हैं। आश्चर्य यह है कि गुजरात में मोदी की सफलता, देश के आधे से ज्यादा भूभाग पर भारतीय जनता पार्टी के शासन और विकास पुरुष के तौर पर उभरी मोदी की छवि भी इस मान्यता को तोड़ नहीं सकी है।

इसका एक बड़ा कारण मोदी का अपना राजनीतिक विकास क्रम है। गोधरा त्रासदी के तुरंत बाद हुए दंगों में अपनी कथित भूमिका पर लगे आरोपों के कारण मोदी की छवि एक कट्टर हिंदू नेता की बनी जरूर, लेकिन मोदी ने अपनी ओर से कभी उस छवि को हवा नहीं दी। उलटा, गुजरात में उन्होंने तमाम हिंदूवादी संगठनों को लगभग खत्म कर दिया और हिंदू एजेंडा को दरकिनार करते हुए केवल और केवल विकास की अपनी छवि को मजबूत किया। 

यानी देश ने जब मोदी को समझना शुरू किया, उसके बाद कभी किसी ने हिंदू मोदी को नहीं देखा (स्कल कैप पहनने से इंकार करना 15 सालों में हुए एकमात्र अपवाद है)। नतीजा यह हुआ कि गुजरात भले भाजपा का गढ़ बन गया, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, सिक्किम और पूर्वोत्तर के तीन राज्यों तक में भले ही भाजपा एक राजनीतिक ताकत बन कर स्थापित हो गई, लेकिन हर जगह पार्टी हिंदुत्व के अपने एजेंडे पर डिफेंसिव रही। इन सब बातों से यही बात साबित होती गई कि हिंदुत्व और विकास एक-दूसरे के विरोधी हैं क्योंकि स्वयं भाजपा को भी अपने को विकास परक साबित करने के लिए हिंदुत्व से पल्ला झाड़ना पड़ता है।

लेकिन भाजपा के मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का राजनीतिक एजेंडा केवल भाजपा के सत्ता हासिल करने से पूरा नहीं होता। संघ का एजेंडा एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की आधारशिला रखने पर केंद्रित है, जहां आर्थिक समृद्धि और दोहरे अंकों के विकास दर के साथ हिंदू युग का स्वर्णिम काल दिख सके। और इस स्वर्णिम काल का एक मूलभूत तत्व हिंदू समाज की एकता है, जिसके लक्ष्य के साथ डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। 

लेकिन सच यह भी है संघ अपने इस उद्देश्य में आज भी आंशिक सफलता ही हासिल कर सका है। गुजरात समेत तमाम दूसरे राज्यों में भाजपा भी कहीं न कहीं जातीय समीकरणों के लिहाज से ही चुनावी बिसात बिछाती आई है। लेकिन पहली बार उत्तर प्रदेश ने पार्टी और संघ के रणनीतिकारों को एक ऐसा जनादेश थमाया, जिसमें जातियों का भेद खत्म हो गया और विरोधियों की भाषा में रिवर्स पोलराइजेशन हुआ यानी कुल मिलाकर भाजपा को मिलने वाले वोट हर जातीय समीकरण से ऊपर उठकर हिंदू के नाम पर पड़े।


उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लिए यह अद्भुत घटना है, जहां कोई हिंदू नहीं। यहां केवल ब्राह्णण, राजपूत, दलित, यादव, पिछड़े और दूसरी जातियां हैं। हिंदू समाज के अलग-अलग हिस्सों को एक-दूसरे के सामने खड़ा करने की रणनीति के साथ उभरी दलित और पिछड़ा राजनीति सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश में ही सफल हुई। समाज के कमज़ोर वर्गों (दलितों, पिछड़ों, अति-पिछड़ों और दूसरी गैर-सवर्ण जातियों) के प्रति अत्याचार, उनकी बहू-बेटियों का तिरस्कार और शोषण और उनकी शादियों में घोड़ी चढ़ने जैसे मसलों पर मारपीट जैसी घटनाएं सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश से ही सामने आती हैं। 

ऐसे में उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सफलता न केवल हिंदुत्व और विकास की एकरूपता साबित करने के लिहाज से तुरूप का पत्ता साबित होगी, बल्कि हिंदू समाज को सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से एक करने के लिहाज से भी संघ को एक आदर्श रेसिपी उपलब्ध कराएगा, जिसे देश के दूसरे हिस्सों में भी लागू किया जा सकेगा। संघ का पिछले 90 साल का इतिहास बताता है कि संघ के लिए केवल अपना लक्ष्य स्थिर है, बाकी समय के साथ संघ हर बदलाव करने के लिए तैयार है। इसलिए जिन लोगों को लगता है कि हिंदुत्व की इस प्रयोगशाला के सफल होने का मतलब मुसलमानों के लिए तबाही है, वो संघ के हिंदू राष्ट्र की उस परिकल्पना से परिचित नहीं हैं, जिसमें संघ यहूदियों और पारसियों जैसे मुट्ठी भर समुदायों को पूरा सम्मान और अधिकार देने को हिंदू समाज की गौरवमयी परंपरा का हिस्सा मानता है। 

तो, जाहिर है कि योगी भी मोदी की उसी परंपरा को आगे बढ़ाएंगे, जिसमें सबका साथ, सबका विकास ही राजनीति का नया मूलमंत्र होगा। योगी भी मोदी की ही तरह विकास को अपना यूएसपी बनाएंगे और अगर वह ऐसा करने में सफल रहे, तो उत्तर प्रदेश जिस सांस्कृतिक-राजनीतिक दौर का गवाह बनेगा, वह संघ के लिए हिंदुत्व की सच्ची प्रयोगशाला साबित होगा।

Wednesday 15 March 2017

ईवीएम को रो रहे नेता बैलेट बॉक्स के जिन्न को भूल गए हैं

तब मैं स्कूल-कॉलेज में था और कोई खास राजनीतिक समझदारी नहीं हुआ करती थी। हालांकि स्कूल के एक बिहारी किशोर की जो कम राजनीतिक समझदारी होती है, वह भी कई दूसरे राज्यों के वयस्कों से बेहतर होती है। तो इस लिहाज से नियमित अखबार पढ़ने और डीडी व बीबीसी के समाचार बुलेटिन सुनते-समझते राजनीति के कुछ सूत्र पकड़ने लगा था मैं। और उस समय क्योंकि बिहार में सभी राजनीतिक धाराओं पर अकेले लालू छाप राजनीति हावी थी, तो उसके गुणा-गणित पर मित्र manish से लंबी-गहरी चर्चा भी हुआ करती थी।

वो बैलेट पेपर का दौर था। लालू का पहला 5 साल खत्म हो चुका था और दूसरे के लिए मतदान हो रहे थे। नरेंद्र मोदी की राजनीति का उस समय तक पुंसवन संस्कार भी नहीं हुआ था, तो विकास भी राजनीति का मुद्दा हो सकता है, इसकी कल्पना नहीं थी। गली-मुहल्लों, चाय-समोसे के ठीयों और स्कूल-ऑफिसों की गपबाज़ी में होने वाली तमाम राजनीतिक चर्चाओं का मूल एक ही होता था- जातीय समीकरण और उपजातियों का गुणा-भाग। तो चर्चाओं, खबरों से एक बात निकल कर आने लगी थी कि लालू का शासन अपनी गुंडागर्दी, अराजकता और यादववाद के लिए बहुत बदनाम हो गया है और गैर-यादव पिछड़ी जातियां लालू के खिलाफ लामबंद होने लगी हैं। अगड़ी जातियां तो पहले ही लालू के "भूरा बाल साफ करो" वाले रवैये से बिदकी पड़ी थीं। तो मिलाजुला कर लालू को केवल "M-Y" समीकरण का वोट मिलता दिख रहा था।

चुनाव हुआ। हवा बन गई कि लालू हारने जा रहे हैं। लेकिन लालू निश्चिंत थे। वो 1995 का समय था, जब टी एन शेषण ने बूथ लूट और मतदान के दौरान होने वाली गड़बड़ियों पर लगभग पूरी तरह रोक लगा दी थी। लेकिन लालू फिर भी निश्चिंत थे। पत्रकारों ने उनसे पूछा तो उन्होंने लूंगी-बनियान में अपने चिर-परिचित अंदाज में कहा- बक्सा खुलने दीजिए, जिन्न निकलेगा। फिर बक्सा खुला और सबने जिन्न निकलते देखा। सारे समीकरण ध्वस्त हो गये। बक्से पर बक्से खुलते गए और जिन्न निकलते गए। नतीजा, लालू को भारी बहुमत आया और उनकी फिर से ताजपोशी हुई।

लोगों को समझ नहीं आया कि जिन्न निकला कहां से। जिन गावों के बारे में कहा जा रहा था कि भाजपा, काँग्रेस या नीतीश के गढ़ थे, उन इलाकों के बक्से जब खुले तो लालू का जिन्न नाचने लगा। लोगों को जवाब मिला कुछ हफ्तों, महीनों के बाद। कई हफ्तों बाद राज्य के अलग-अलग हिस्सों से सैकड़ों बैलेट बॉक्स मिलने लगे। कभी तालाबों में, कभी झाड़ियों में और कभी जंगलों में। लेकिन लालू का जिन्न तो निकल ही चुका था और अपने आका का काम भी कर चुका था।

ईश्वर मायावती, केजरीवाल और कांग्रेस पार्टी को भी जिन्न का आशीर्वाद दें...